Tuesday, December 31, 2024

प्रेम

 प्रेम कभी कभी इतना मजबूर कर देता है की सही- गलत का भेद सामने हो कर भी नज़र नहीं आता ! ऐसा ही क्रोध धारण करने पर होता है ! उद्वेलन चाहे चाहत का हो या क्रोध का इनका अंत अत्यन्त ही कष्टकारी होता है ! अकाँक्षा और अपेक्षा से पीछा छुड़ाना भी असंभव है ! परंतु एक स्थिति है जिसको कदाचित धारण कर कुछ सीमा तक इसको संभाला जा सकता है और वो है सहज भाव ! परंतु सहज भाव का अनुसरण भी अत्यंत पेचीदा है! क्यूँकी जीवन कई स्तम्भों पर टिकी हुई, कोई ईमारत सरीखा होता है जिसमें से एक स्तम्भ आत्मवाद है, यही स्तम्भ व्यक्ति को सहज होने से रोकता है, दूर करता है, क्यूँकी व्यक्ति, उसे उसका स्वाभीमान समझने की भूल कर बैठता है ! इस मनोस्थिति या यूँ कहें कि इस मानोविकार को समझना, आँकलन कर, दूर करना अत्यंत कठिन तो है परंतु अगर, आत्मियता के बोध की सबसे सहज अनुभूती-आवृत्ती अर्थात प्रेम के दर्शन का अनुसरण किया जाये तो इस पर भी विजय प्राप्त की जा सकती है ! अब अगर प्रश्न यह है कि कैसे ? तो यह अत्यंत ही साधारण है, और वो है "आत्मिक विलय" यह एक ऐसी अवस्था है जिसमें न तो कुछ अपना शेष रहता है और न कुछ पाना ही शेष रह जाता है !

परंतु अक्सर व्यक्ति इस अवस्था से आशय कुछ और निकाल लेते हैं ! आत्मिक विलय का सही आंकलन, जीवन में आपार, अविरल, असंख्य, अशोक, अभूतपूर्व, अप्रत्याशित, अमूल्य, अखण्ड सुखानुभूतियों की झड़ियाँ लगा देता है ! 

और शायद ! आवश्यक्ता भी तो इसी की है !

शेष फिर.......!

|| द्वारा: ऐडवोकेट उत्तम चन्देल आगराई ||

सोचनीय !

आम तौर पर ये काफी सुनने में आता है कि वो फलाना व्यक्ति तो बड़ा ही सदा जीवन जीने वाला था, बड़ा ही स्वनुशासित था पर उसे कैंसर हो गया या ट्यूमर हो गया या किसी और बीमारी का वो शिकार हो गया....है न ?


कभी आपने सोच है कि ऐसा क्यूँ कर हो जाता है, ऐसा कैसे हो जाता है ?


नहीं न ! तो आइए एक अनुसंधानित विषय से आपका परिचय करवाता हूँ। तो सुनिये, ये जो हमारा शरीर है न, ये केवल विकास-क्रम का एक भाग है, इसको कैसे विकसित होना है, इसपर हम पूरी तरह से अपना आधिपत्य, अधिकार या नियंत्रण नहीं रख सकते क्यूँकि ये क्रमिक-विकास के एक पड़ाव के रूप में हमको मिला है। जैसे-जैसे ये विकसित होता जाता है ये उस विकास-क्रम के कर्म में आये समस्त कारकों को भी अपने भीतर एक विशेष स्मृति के रूप में समायोजित करता जाता है।

थोड़ा कठिन हो रहा है न समझने में ! तो लाइये इसको सरल करने की कोशिश करते हैं।

आपने अपने बड़ों और बुजुर्गों से कुछ वाक्य तो अवश्य ही सुने होंगे कि सब कर्मों का फल है.... भाग्य में जो लिखा है वही होगा आदि इत्यादि।

ये वाक्य इतने सरल नहीं हैं जितने सरल ये वाक्य प्रतीत होते हैं। आईये इसको समझने की चेष्टा करते हैं। हमने अभी ऊपर क्रमिक-विकास का जिक्र किया था। क्या है ये क्रमिक-विकास ? यही मुख्य रूप से हमारी आज की अवस्था के लिए उत्तरदायी है या यूँ कहें कि मुख्य कारण है।

आज से पहले आप क्या थे, पिछले जन्म में क्या थे, आपने पिछले जन्मों में आपके क्या कर्म थे, ये उन्हीं कर्मों का फल है....मैं ऐसा कुछ भी नहीं कहना चाहता और न ही कहने जा रहा हूँ पर हाँ "कर्मों का फल" ही वो कारण है, जिसके कारण आज ....वो फलाना व्यक्ति किसी विशेष रोग से ग्रस्त है, मेरा आशय इस बात से अवश्य है।


आइये इसको और सरल सरल रूप में समझते हैं ! 

वो इस प्रकार है कि, हम जो भी कर्म करते है, उसका प्रभाव केवल इस जन्म में ही हम पर नहीं पड़ता या यूँ समझे कि वो केवल इसी जन्म में हमारे साथ खत्म नहीं हो जाता वो हमारे DNA द्वारा हमसे उत्पन्न हमारी पीढ़ी, हमारे वंश में भी जाता है अर्थात अगर हम कोई भी व्यसन-कर्म करते हैं तो ऐसा बिल्कुल नहीं हैं कि उनका प्रभाव हमारे जीवन खत्म होने पर हमारे शरीर के साथ समाप्त हो जाएगा बल्कि क्रमिक-विकास व उनके दौरान एकत्रित की हुई स्मृतियों के संयोजन के चलते उससे उत्पन्न हुई उसकी प्रत्येक अच्छाई या बुराई जो भी है, एक याददाश्त के रूप में हमारे उस DNA में संचित कर ली जाती है और हमारी आगे आने वाली पीढ़ीयों-वंशों तक वो जीवित रहती है, उसके मानस-पटल पर सदा-सदा के लिए अंकित हो जाती है और उसीका रूप दृष्टिगोचर होता है, ...."फलाना व्यक्ति तो बड़ा ही अनुशासित था" की परिणीति के रूप में अपना प्रभाव दिखाती है ! 

क्यूँकि उस ....फलाने व्यक्ति ने भले ही कोई व्यसन न किया हो पर उसके DNA, उसके जीन्स में उसके DNA के क्रमिक-विकास के दौरान शामिल हुई उसके कभी किसी पुरखे की "व्यसनकर्म-स्मृति जनित जीवाणु के अंश" मौजूद थे जो अब जाकर क्रियाशील हुए, जिनके कारण आज उस ....फलाने अनुशासित व्यक्ति को ये पीड़ा सहन करनी पड़ रही है।

ये बिल्कुल अनुसंधनित है कि हमारा आज का कर्म ही हमारी आने वाली पीढ़ियों के भाग्य है, इनको हम जितनी जल्दी समझ लें हमारे लिए श्रेयस्कर होगा।

आशा करता हूँ कि उपरोक्त विषय व उसका प्रसंग आपको स्पष्ट हुआ होगा।

🙏

आपका: ऐड० उत्तम चन्देल आगरा।

एक चिंतन

 एक चिंतन

महाभारत के युद्ध से पहले नारायण अवतार योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को उसका धर्म स्मरण करवा कर युद्ध करने की सीख दी थी। 

श्री कृष्ण ने ये नहीं कहा था कि अर्जुन अस्त्र शस्त्र नीचे रख दो और अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए सब कुछ त्याग दो।

अगर श्रीकृष्ण ऐसा न करते तो उस कालखण्ड के नीच-पापी-असुरों-व्यभिचारियों का अंत न हो पाता और धरती उस कालखण्ड में पाप मुक्त न हो पाती।

बिल्कुल उसी प्रकार जब भारतवर्ष के बंटवारे की बात कहते हुए आतंक के बाप, "जिंद-जिन्नाह" ने उसके "डायरेक्ट ऐक्शन प्लान" को लागू करते हुए नापकिस्तान की मांग की थी तब भी अगर उस काल के वीरों द्वारा उस कालखण्ड के दुष्टों को (जो कि मॉडर्न हिस्ट्री के कदाचित सबसे पहले आतंकवादी थे) मौत के घाट उतरवा दिया होता तो आज भारतवर्ष के गौरव और प्रखर होता उसकी जड़ों को बेड़ियों में जकड़कर, 

अहिंसा की दीमक खोखली न कर चुकी होती- न कर रही होती, 

उसको हल्का लेने की कोई मुल्क हिम्मत न करता, आतंकवाद का चिरस्थाई दंश न झेलना पड़ रहा होता, कश्मीरी पंडित न निर्वासित हुए होते, बलूची-सिंधी-सिक्खों को न गाजर मूली की तरह काटा गया होता, 

माँ-बहू-बहन-बेटियों का बलात्कार न हुआ होता, 

हमारे इतने सैनिक भाई न शहीद हुए होते।


हमारे देश के कमज़ोर नेतृत्व ने बार बार हर बार अपनी कमजोरी, मक्कारी, चापलूसी, गद्दारी, लालच, भ्रस्टाचार को सिद्ध करने के लिए "अहिंसा" को चरम-परम उपयोगी उपकरण बनाया है और उसकी कटु-कीमत हमरे देश के जन-गण-मन ने चुकाई है।

परंतु

अब भारतवर्ष का उसके मस्तक उठाकर दीर्घ गर्जना में चिंघाड़ने का वक़्त आया चुका है, अब ये भारतवर्ष चुप बैठने वाला नहीं है, चुप कर देने वाला होने जा रहा है या कहें कि हो चुका है और दिन प्रतिदिन और भी सुदृण-शक्तिशाली होता जा रहा है। 

इसलिए

देश के लिए कैंसर यहाँ के आंतरिक गद्दारों को विशेषकर चेतावनी है कि या तो अपने मुँह में तिनका दबा के सुधर जाओ अन्यथा सुधार दिए जायेंगे।

एक भारत श्रेष्ठ भारत की तरफ़ अब इस देश का मुस्तक़बिल चल पड़ा है, जो भी इसकी राह में रोड़ा बनने की चेष्ठा भी करेगा, उसको ऐतिहासिक रूप से सुधार दिया जाएगा। 

अब ये रुकने वाला नहीं है बहुत हुआ अहिंसा के छद्मावरण के पीछे का चापलूसी-खुशामदी का दौर।

तद्दपि

उठो और इस राष्ट्रगौरवघोष के मंत्र को राष्ट्रसमरयज्ञ में सिद्ध करो।

माँ भारती की जय हो चिर दीर्घ दिगविजय हो।

शेष फ़िर !

:अधिवक्ता उत्तम चन्देल आगरा

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